हे अद्वैत! तेरे भीतर यह क्या इच्छा उत्पन्न हुई

27-Apr-2024 PM 02:40:04 by Rajyogi

 हे अद्वैत! तेरे भीतर यह क्या इच्छा उत्पन्न हुई, कि तु द्वैत हो गया! काहे तू एक रूप में चेतन और अनेक रूप में जड़ हो गया और तुमने अनंत सृष्टि को जन्म दे दिया, जैसे किसी मनुष्य ने स्वप्न में अपनी इच्छानुसार, जड़ रूप में नगर और चेतन रूप में नगरवासी बना दिए हों- ऐसे ही तुमने अनंत के द्वारा सृष्टि का विस्तार कर डाला, यद्यपि सब तुममे है और तु इच्छा रूप में सब में है। 

कितना आश्चर्य है कि तेरी एक इच्छा ने! अनंत इच्छाओ को जन्म दे दिया, तेरी एक इच्छा अनंत रूप में और अनंत इच्छाए अनंतानंत रूप में विभक्त हो गई हैं- इस तरह कोटिकोट ब्रह्माण्डों का निर्माण हो गया- अब तु इनके अज्ञान पर शासन कर रहा है।

हे ईश्वर! तु आत्मा रूप में अनंत समृतिओ में बिखरा हुआ है, तेरी एक इच्छा रूप समृति अनेक इच्छाओ के साथ आवागमन में उलझ गई है। तु प्रत्येक आत्मा के साथ अपने शुद्ध चेतन रूप में विद्यमान है, तु प्रत्येक घट में पूर्ण है। यह तेरी ही महिमा है कि अनंत घटों में सृष्टि कहीं भी अपूर्ण नहीं है, प्रत्येक घट में संपूर्ण सृष्टि समाहित है। तेरी प्रत्येक स्मृति अपने को सभी और से समेटकर तुझमे विलीन हो जाती है, तेरी प्रत्येक स्मृति चेतन स्वरूप को प्राप्त कर तुझसे अभिन्नता प्राप्त कर लेती है ( तेरा ही स्वरूप हो जाती है ) -तू धन्य है! जड़ रूप में तू बंधक भी है, चेतन रूप में मुक्त भी तू ही है।

      - राजयोगी जी