27-Apr-2024 PM 02:01:00 by Rajyogi Ji
जबरदस्ती बाहर-भीतर भटकने से कोई लाभ होने वाला नहीं है! संकल्पो-विकल्पो में बंधे हुए इस मन के लिए तो इसकी इच्छाओ के अनुसार बाहर और भीतर दोनो जगह संसार ही है। स्वप्न में विलीन इस मन के लिए खुली आंखो की पुतलियो से देखने पर बाहर भी संसार है और आंखो की पलकें बंद हो जाने पर भीतर भी संसार ही है- क्योंकि जो इस शरीर और इंद्रियो को माध्यम बनाकर भोगने का अह्सास कर रहा है, वह स्वयम ही दृश्य और द्रष्टा के रूप में ढला हुआ है, यह शरीर तो निमित्त मात्र है। इसके लिए बंधन किसी कारागृह अथवा धातु की बेड़ियों का नहीं है और ना ही इसे किसी ईश्वर ने अपने पाश में बाध रखा है! यह बावरा अपरिग्रह तो स्वयम ही अपनी इच्छाओ और संकल्पो के अधीन होकर बंधा हुआ है। फिर पता नहीं यह अज्ञानवश किस ईश्वर से मुक्ति की याचना कर रहा है, जबकि अपनी इच्छाओ और संकल्पो-विकल्पो से मुक्त हुआ यह परम-चेतन स्वरूप परमात्मा मुक्त ही है। शरीर भाव में बंधे हुए इस अज्ञानी परमात्मा की दशा ऐसी है, जैसे किसी ने अपने को एक कमरे में भीतर से बंद कर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया हो और अब वह पड़ोसियो से दरवाजा खोलकर उसे मुक्त करने की गुहार लगा रहा हो। अब इस अज्ञानी परमात्मा को कौन समझाए कि इसका तो कोई पड़ोसी ही नहीं है, यह स्वयम ही स्वयम का पड़ोसी है और स्वयम ही अपने सभी स्वरूपो को समेटकर निराकार स्वरूप में मुक्त हो सकता है।
-राजयोगी जी